The HP Teachers - हिमाचल प्रदेश - शिक्षकों का ब्लॉग: कैसे शिक्षा का अधिकार देने वाली सरकार इसकी जिम्मेदारी से बचती हुई दिख रही है
कैसे शिक्षा का अधिकार देने वाली सरकार इसकी जिम्मेदारी से बचती हुई दिख रही है
कैसे शिक्षा का अधिकार देने वाली सरकार इसकी जिम्मेदारी से बचती हुई दिख रही है
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आज देश में शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) लागू हुए आठ साल
हो चुके हैं. संयोग है कि इन्हीं दिनों शिक्षा व्यवस्था को लेकर केंद्र
सरकार सवालों के घेरे में है. बीते महीने केंद्र द्वारा 60 शिक्षण संस्थाओं
को स्वायत्तता देने और सीबीएसई पेपर लीक मामले को लेकर छात्र सड़क पर उतर
चुके हैं. छात्रों और शिक्षकों के एक बड़े तबके का मानना है कि स्वायत्तता
देने के फैसले के बाद उच्च शिक्षा और महंगी हो जाएगी.
इससे पहले बीते जनवरी में जारी एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट
(असर) के बाद देश के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के हाल पर सवाल उठ खड़े
हुए थे. इसमें यह बात सामने आई थी कि आठवीं में पढ़ रहे आधे से अधिक बच्चे
साधारण गुणा-भाग के सवाल हल नहीं कर सकते. प्राथमिक शिक्षा बच्चों और नतीजन
देश के भविष्य की भी बुनियाद मानी जाती है. आजादी के आंदोलन के दौरान इसे
लेकर महात्मा गांधी का कहना था, ‘जो कांग्रेसजन स्वराज्य की इमारत को
बिलकुल उसकी नींव या बुनियाद से चुनना चाहते हैं, वे देश के बच्चों की
उपेक्षा नहीं कर सकते.’
माना जाता है कि इस बात को ध्यान में रखते
हुए ही संविधान के शिल्पकारों ने शिक्षा का अधिकार को राज्यों के लिए नीति
निदेशक तत्वों में शामिल किया था. इसके बाद साल 2002 में 86वें संविधान
संशोधन के जरिए छह से 14 साल के बच्चों को शिक्षा के मौके उपलब्ध करवाने को
लेकर इसे नागरिकों के मूल कर्तव्य की सूची में जोड़ा गया. हालांकि, इसके
करीब आठ के साल बाद ही सरकार ने इसकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली और एक
अप्रैल, 2010 से शिक्षा का अधिकार कानून लागू कर दिया गया. इस कानून को
देश के इतिहास में मील का पत्थर माना गया.
शिक्षा के अधिकार कानून
में कई ऐसे प्रावधान शामिल किए गए हैं, जिनसे प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा
में आमूलचूल बदलाव का रास्ता खुलता हुआ दिखता है. हालांकि, आधिकारिक
आंकड़ों के साथ बीते साल नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट
को देखें तो इस कानून के जमीनी अमल पर कई सवाल खड़े होते दिखते हैं. बजट आवंटन और खर्च
केंद्रीय
बजट में आरटीई के लिए अलग से कोई आवंटन नहीं किया जाता. इसे साल 2000-01
से चल रहे सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के साथ ही जोड़ा गया है. इस कानून के
तहत केंद्र द्वारा राज्यों को 65 फीसदी मदद देने का प्रावधान शामिल किया
गया था. हालांकि, साल 2014-15 में केंद्र ने अपना हिस्सा घटाकर 60 फीसदी कर
दिया. पूर्वोत्तर के आठ राज्यों के साथ हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड (विशेष
राज्यों) के लिए यह आंकड़ा 90 फीसदी है. सर्व शिक्षा अभियान के लिए केंद्रीय बजट आवंटन | साभार : सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्चसाल
2018-19 के बजट में एसएसए के लिए 26,129 करोड़ रुपये आवंटित किए गए. यह
2017-18 के मुकाबले 11 फीसदी अधिक है. हालांकि, यह रकम केंद्रीय मानव
संसाधन मंत्रालय द्वारा जरूरी संसाधनों के लिए आकलित रकम 55,000 करोड़
रुपये से काफी कम है. हालांकि बीते वित्तीय वर्ष में कुल आवंटित बजट का
केवल 66 फीसदी ही खर्च किया गया. इससे पहले साल 2015-16 में यह आंकड़ा 70
फीसदी था. मई, 2017 में इस बारे में मंत्रालय का कहना था कि बाकी बची रकम
को राज्यों के लिए जारी फंड में शामिल किया जाएगा. हालांकि, इस अभियान के
लिए जारी फंड में से बड़ी रकम खर्च न हो पाने को लेकर सरकार ने चुप्पी साधे
रखी.
केंद्र सरकार सर्व शिक्षा अभियान के लिए बजट में रकम राज्यों
द्वारा सौंपी गई वार्षिक कार्य योजना और बजट के आधार पर तय करती है.
हालांकि, देखा गया है कि केंद्र, राज्यों द्वारा प्रस्तावित रकम से कम ही
आवंटित करता है. साल 2015-16 में राज्यों ने कुल 91,485 करोड़ रुपये की
योजना रखी थी लेकिन, केंद्र ने केवल 63,485 करोड़ रुपये की ही मंजूरी दी.
यही नहीं, मंजूर की गई रकम का भी केवल 55 फीसदी ही बजट में आवंटित किया
गया. साल 2016-17 में यह आंकड़ा घटकर केवल 48 फीसदी रह गया था. दूसरी ओर,
साल 2013-14 में यह 86 फीसदी था. राज्यों द्वारा सर्व शिक्षा अभियान पर खर्च रकम (फीसदी में) | साभार : सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्चराज्यवार
देखें तो महाराष्ट्र इस अभियान के लिए आवंटित राशि को खर्च करने में सबसे
आगे है. राज्य ने 2016-17 में कुल रकम का 84 फीसदी खर्च किया था. इसके बाद
राजस्थान और उत्तर प्रदेश ने 77-77 फीसदी हिस्सा खर्च किया. दूसरी ओर,
पश्चिम बंगाल में इस मामले में फिसड्डी रहा है. ममता बनर्जी की नेतृत्व
वाली सरकार कुल आवंटित रकम का केवल 37 फीसदी ही खर्च कर पाई है. बुनियादी संसाधनों और ढांचे की कमी
आरटीआई
कानून की धारा- आठ और नौ में कहा गया है कि यह राज्य सरकार और स्थानीय
प्राधिकरण की जिम्मेदारी है कि वे शिक्षा के लिए बुनियादी संसाधान और ढांचे
उपलब्ध कराएं. इनमें स्कूल की इमारत, शौचालय, स्वच्छ पेयजल, खेल का मैदान,
चारदीवारी, शिक्षक और सीखने के लिए अध्ययन सामाग्री शामिल हैं. इस कानून
की धारा 19 (1) कहती है कि जरूरी बनियादी संसाधनों के अभाव में किसी स्कूल
को मान्यता नहीं दी जा सकती. साल 2010 में जब इस कानून को लागू किया गया था
तो बुनियादी संसाधन और ढांचे को तीन साल के अंदर उपलब्ध कराने की बात कही
गई थी. हालांकि, अब तक इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका है.
सीएजी
द्वारा सात राज्यों में ऑडिट के दौरान पाया गया कि 105 स्कूल बिना किसी
इमारत के चल रहे हैं. इसके अलावा 858 स्कूलों को किराए के मकान में चलाया
जा रहा है. आरटीआई कानून के मुताबिक स्कूल में प्रत्येक शिक्षक के लिए कम
से कम एक क्लासरुम होना चाहिए. सीएजी द्वारा साल 2012-13 से लेकर 2015-16
के बीच ऑडिट में पाया गया कि इस शर्त को केवल 66 फीसदी स्कूल ही पूरा कर
पाए हैं. जहां तक स्कूलों में बिजली की सुविधा उपलब्ध कराने की बात है तो
इसे केवल 58 फीसदी स्कूल ही हासिल कर पाए हैं. इसके अलावा करीब आधे स्कूलों
में ही खेल के मैदान और चारदीवारी मौजूद हैं. स्कूलों में बुनियादी ढ़ांचे की उपलब्धता | साभार : सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्चशिक्षा
का अधिकार कानून में बच्चों को सरकार की ओर मुफ्त यूनिफॉर्म और किताबें
देने का भी प्रावधान है. हालांकि, इसे लेकर कई तरह की अनियमितता और
भ्रष्टाचार के मामले सामने आए हैं. सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि
साल 2013-14 में पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर स्थित 13 स्कूलों में खराब
गुणवत्ता की यूनिफॉर्म देने की शिकायत की गई. इसके अलावा कुछ समय पहले
बिहार में बच्चों को समय पर किताबें नहीं दिए जाने की शिकायतें सामने आई
हैं. इसे देखते हुए बिहार सरकार ने किताबों की जगह इसे खरीदने के लिए पैसे
दिए जाने का ऐलान किया है. इसके अलावा सरकारी मशीनरी की लेटलतीफी का आलम यह
है कि उत्तर प्रदेश में ठंड बीतने के बाद भी बच्चों को स्वेटर और जूते-मोजे नहीं बांटे जा सके.
शिक्षा के अधिकार को लेकर एक नागरिक संगठन आरटीआई फोरम
की मानें तो 15 लाख सरकारी और निजी स्कूलों में से केवल आठ फीसदी ही कानून
में तय मानकों को पूरा करते हैं. इनका कहना है कि स्कूलों की संख्या में
लगातार कमी आई है. साथ ही, शिक्षकों के 13 लाख पद खाली हैं. इसके अलावा
करीब 20 फीसदी अप्रशिक्षित शिक्षकों के साथ शिक्षा व्यवस्था को खींचा जा
रहा है. शैक्षणिक गुणवत्ता पर कम जोर
सर्व
शिक्षा अभियान के लिए जारी रकम का तीन-चौथाई से भी ज्यादा हिस्सा शिक्षकों
के वेतन और मकान सहित बाकी ढांचे को खड़ा करने में खर्च किया जा रहा है.
साल 2017-18 में आवंटित रकम में इनकी हिस्सेदारी 76 फीसदी रही थी. दूसरी ओर
शिक्षक प्रशिक्षण, नवाचार, पुस्तकालय जैसी गुणवत्ता संबंधी मदों पर केवल
10 फीसदी रकम खर्च की गई. इसके अलावा किताबों, यूनिफॉर्म और समावेशी शिक्षा
के उठाए जाने वाले कदमों के लिए यह आकंड़ा 14 फीसदी ही था.
कानून के
प्रावधानों के मुताबिक शिक्षकों को जनगणना, आपदा राहत और चुनावी कार्यों
के अलावा और किसी गैर-शैक्षणिक गतिविधियों में नहीं लगाया जा सकता. इसके
बाद भी शिक्षकों की भारी कमी के बीच उन्हें प्रशासनिक कार्यों की
जिम्मेदारी दे दी जाती है. मसलन सीएजी ने उत्तराखंड में पाया कि 268
शिक्षकों को क्लस्टर रिसोर्स कोऑर्डिनेटर (सीआरसी) की जिम्मेदारी संभालनी
पड़ रही है. स्कूल प्रबंधन समति को लेकर अनियमितता और लेटलतीफी
इस
कानून के मकसदों को पूरा करने के लिए स्थानीय समाज को साथ लाने की भी बात
कही गई है. आरटीआई कानून के मुताबिक इसके लागू होने के छह महीने के अंदर
स्कूल प्रबंधन समिति (एसएमसी) का गठन किया जाना था. इस समिति का मकसद स्कूल
और स्थानीय समुदाय के बीच एक पुल का काम करना है. साथ ही, इसे स्कूलों में
बुनियादी सुविधाओं को लेकर भी सचेत रहने की जिम्मेदारी दी गई है. लेकिन,
सीएजी द्वारा 12 राज्यों के ऑडिट में पाया गया कि अलग-अलग राज्यों में तीन
से 88 फीसदी स्कूलों में इसे गठित नहीं किया जा सका है. इसके अलावा जिन
स्कूलों में इसे गठित किया गया है, वहां भी स्कूल के विकास को लेकर होने
वाली बैठकों में अनियमितता पाई गई है. राज्यों में स्कूल प्रबंधन कमिटी की स्थिति | साभार : सीएजीनिजी स्कूलों में नामांकन को लेकर समस्याएं
आरटीआई
कानून के मुताबिक निजी स्कूलों में गरीब परिवार के बच्चों के लिए 25 फीसदी
सीटें आरक्षित रखने का प्रावधान है. निजी स्कूलों में सीमित सीट और
नामांकन के लिए मारामारी के बीच किसी गरीब के लिए अपने बच्चों के कदम इनके
दरवाजे के अंदर करवाना टेढ़ी खीर जैसा होता है. इस साल डिपार्टमेंट ऑफ
पब्लिक इंस्ट्रक्शन (डीपीआई) के पास 1.58 लाख सीटों के लिए 2.28 लाख आवेदन आए हैं.
उधर,
गरीब बच्चों को नामांकन देने के बाद भी निजी स्कूलों द्वारा सरकार से
वित्तीय मदद हासिल करने में समस्याओं का सामना करने की बात सामने आई है.
महाराष्ट्र स्थित फेडरेशन ऑफ स्कूल एसोसिएशन ने आरटीआई फंड हासिल न होने की
वजह से दिल्ली के रामलीला मैदान और मुंबई के आजाद मैदान में विरोध
प्रदर्शन करने का ऐलान
किया है. फेडरेशन का कहना है कि स्कूलों का करीब 12,000 करोड़ रुपये सरकार
के ऊपर बकाया है. दूसरी तरफ, सरकार की ओर से वित्तीय मदद न मिलने से नाराज
उत्तर प्रदेश के करीब 2,000 निजी स्कूलों ने 2018-19 शैक्षणिक सत्र के लिए आरटीई कोटे से नामांकन न करने की बात कही है.
निजी
स्कूलों में आरक्षित कोटे से आने वाले बच्चों के साथ भेदभाव के साथ
किताबों, यूनिफॉर्म और अन्य सुविधाओं के लिए पैसे वसूलने की शिकायतें भी
सामने आई हैं. कर्नाटक स्थित बाल अधिकार संरक्षण आयोग
ने इस बारे में कई शिकायतें मिलने के बाद निजी स्कूलों को चेतावनी जारी की
है. आयोग ने आरटीआई कानून के प्रावधानों का उल्लंघन किए जाने पर सख्त
कार्रवाई की बात कही है. उधर, स्कूलों का कहना है कि उन्हें सामान्य और
आरक्षित कोटे से आने वाले बच्चों को मुफ्त सुविधाएं उपलब्ध कराने में
परेशानी का सामना करना पड़ता है. साथ ही, स्कूलों ने आयोग पर उत्पीड़न करने
का भी आरोप लगाया है.